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अर्जुन उवाच | अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण ! इस प्रकार | Adhyay-1 |Part-8 | #bhagwadgeeta #भगवद्गीता
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति
भीष्म, द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो |
तात्पर्य
समस्त जीवों के परमात्मास्वरूप भगवान् कृष्ण यह जानते थे कि अर्जुन के मन में क्या बीत रहा है | इस प्रसंग में हघीकेश शब्द प्रयोग सूचित करता है कि वे सब कुछ जानते थे | इसी प्रकार पार्थ शब्द अर्थात् पृथा या कुन्तीपुल भी अर्जुन के लिए प्रयुक्त होने के कारण महत्त्वपूर्ण है | मित्र के रूप में वे अर्जुन को बता देना चाहते थे कि चूँकि अर्जुन उनके पिता वसुदेव की बहन पृथा का पुत्र था इसीलिए उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया था | किन्तु जब उन्होंने अर्जुन से "कुरुओं को देखो" कहा तो इससे उनका क्या अभिप्राय था? क्या अर्जुन वहीं पर रुक कर युद्ध करना नहीं चाहता था ? कृष्ण को अपनी बुआ पृथा के पुत्त्र से कभी भी ऐसी आशा नहीं थी | इस प्रकार से कृष्ण ने अपने मित्र की मनःस्थिति की पूर्वसूचना परिहासवश दी है।
तत्त्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि
अर्जुन ने बहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, 'भाड़यों, पुत्लों, पौत्रों, मित्नों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा |
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्
जब कुन्तीपुत्न अर्जुन ने मित्नों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला |
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति
अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण ! इस प्रकार युद्ध कि इच्छा रखने वाले मित्नों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंगू काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है।
तात्पर्य
यथार्थ भक्ति से युक्त मनुष्य में वे सारे सगुण रहते हैं जो सत्पुरुषों या देवताओं में पाये जाते हैं जबकि अभक्त अपनी शिक्षा या संस्कृति के द्वारा भौतिक योग्यताओं में चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो इस इश्वरीय गुणों से विहीन होता है | अतः स्वजनों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को युद्धभूमि में देखते ही अर्जुन उन सबों के लिए करुणा से अभिभूत हो गया, जिन्होनें परस्पर युद्ध करने का निश्चय किया था | जहाँ तक उसके अपने सैनिकों का सम्बन्ध थे, वह उनके प्रति प्रारम्भ से दयालु था, किन्तु विपक्षी दल के सैनिकों कि आसनन मृत्यु को देखकर वह उन पर भी दया का अनुभव कर रहा था | और जब वह इस प्रकार सोच रहा था तो उसके अंगों में कंपन होने लगा और मुँह सूख गया | उन सबको युद्धाभिमुख देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ | प्रायः सारा कुटुम्ब, अर्जुन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये थे | यद्यपि इसका उल्लेख नहीं है, किन्तु तो भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि न केवल उसके अंग काँप रहे थे और मुख सूख रहा था अपितु वह दयावश रुदन भी कर रहा था | अर्जुन में ऐसे लक्षण किसी दुर्बलता के कारण नहीं अपितु हृदय की कोमलता के कारण थे जो भगवान के शद भक्त का लक्षण है |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते । गाण्डीवं संसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते
मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीब धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है।
तात्पर्य
शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते हैं | ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भय उत्पन्न होने पर होता है | दिव्य साक्षात्कार में कोईभय नहीं होता | इस अवस्था में अर्जुन के जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात् जीवन की हानि के कारण हैं | अन्य लक्षणो से भी यह स्पष्ट है; वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गाण्डीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन उत्पन्न हो रही थी | ये सब लक्षण देहात्मबुद्धि से जन्य हैं
न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥
मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ | मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है| हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं
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