आंसू मेरे Gazal

11 months ago
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अपनी पोशाक के छिन जाने का अफ़सोस न कर
सर सलामत नहीं रहते यहाँ दस्तार के बीच

जिस की चोटी पे बसाया था क़बीला मैनें
ज़लज़ले (भूकंप) जाग पड़े हैं उसी कोहसार (पर्वत) के बीच

रिज़्क (रोजी), मलबूस (वस्त्र), मकाँ, साँस, मरज़, क़र्ज़, दवा
मुन्क़सिम (विभक्त) हो गया इन्सां इन्हीं अफ़कार (चिंतन) के बीच

देखे जाते न थे आंसू मेरे जिस से 'मोहसिन'
आज हँसते हुए देखा उसे अगयार (पराए लोग) के बीच.

अपनी पोशाक के छिन जाने का अफ़सोस न कर
सर सलामत नहीं रहते यहाँ दस्तार के बीच

जिस की चोटी पे बसाया था क़बीला मैनें
ज़लज़ले (भूकंप) जाग पड़े हैं उसी कोहसार (पर्वत) के बीच

रिज़्क (रोजी), मलबूस (वस्त्र), मकाँ, साँस, मरज़, क़र्ज़, दवा
मुन्क़सिम (विभक्त) हो गया इन्सां इन्हीं अफ़कार (चिंतन) के बीच

देखे जाते न थे आंसू मेरे जिस से 'मोहसिन'
आज हँसते हुए देखा उसे अगयार (पराए लोग) के बीच.

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