Ramayani Sadhna Satsang Bhag 25

1 year ago
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परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1149))

*रामायणी साधना सत्संग*
*अयोध्या काण्ड भाग-२५ (25)*

*श्री भरत जी का श्री राम से चरण पादुका ग्रहण करना*
*श्री भरत जी मुनिराज का चरण पादुका को अयोध्या का राजा घोषित करना* ।

भगवान मां कैकई की निंदा बिल्कुल नहीं करते और साफ-साफ कहते हैं भरत के सामने, जितने लोग और भी आए हुए हैं उन सबके सामने कहते हैं, जो मेरी मध्यमा मां की निंदा करेगा वह जड़ है । मानो उस व्यक्ति ने कभी संतों महात्माओं की सेवा नहीं करी । उसने कभी सत्संगति नहीं करी। मानो उसे तत्व का बोध ही नहीं है । यह भरत को कह रहे हैं । दो भाई एक जैसे लेकिन उनकी विचारधारा इस वक्त बड़ी भिन्न है । कौन है सच्चा ? भरत या राम ।

भरत कहता है महाराजा आप प्रशंसा करने वाले एक, और मेरा समर्थन देने वाली यह सारी जनता । भगवान को लगता है इस वक्त भरत का खंडन करना कोई आसान नहीं । इसलिए अपने श्री मुख से भरत की प्रशंसा करनी आरंभ करते हैं । भरत जो तुझे अनर्थकारी कहेगा, जो तुझे इस प्रकार का कहेगा, उसका लोक परलोक सब बिगड़ जाएगा । तेरा नाम जो लेगा उसका लोक परलोक सुधर जाएगा, इस प्रकार की प्रशंसा करते हैं । श्रोतागण जितने भी हैं, अयोध्या निवासी जितने भी आए हुए, सभी प्रसन्न होते हैं । भगवान मौका ढूंढते हैं और कहते हैं, यदि मां कैकई ना होती तो ऐसा भरत कहां से आ गया होता ।

मां कैकई की निंदा मत करो । वह निंदनीय नहीं है, वह वंदनीय हैं । ऐसा कल आपने देखा, भारद्वाज ऋषि ने भी कहा ।
वह दोषी नहीं है । दोष है तो मां सरस्वती का दोष है, जो मां कैकई की जिव्हा पर बैठ कर उसने सब कुछ करवाया । सत्यता तो यही है, भगवान ही है सब कुछ करवाने वाला, और कौन है । चाहे वह कैकई से करवा रहा है, चाहे अब भरत से करवा रहा है, चाहे वह किसी से करवाता है । करवाने वाला तो वही है सब कुछ ।‌ और होता वही है जो वह चाहता है । मत सोचिएगा अपनी इच्छा से सब कुछ होता है । अपनी इच्छा जब उसकी इच्छा के साथ मिल जाती है, तो लगता है की अपनी इच्छा पूर्ण हो रही है ।
होती इच्छा उसी की पूर्ण है‌ । और जब उसकी इच्छा नहीं होती, तो आप लाख सिर पटकते रहो, वह कुछ नहीं होने देता । तब कुछ नहीं होता ।

भरत जी महाराज, बहुत लंबी चौड़ी चर्चा होती है ।
वाल्मीकि रामायण में राजा जनक एवं उनकी पत्नी का आगमन नहीं है । रामचरितमानस में तो उनका आगमन है । वह निर्णय करने के लिए, करवाने के लिए, जैसा मर्जी आप समझिएगा, आखिर जीत भरत की ही होती है । देखने में तो यही लगता है राम जीत गए । वह अपने प्रण का पालन कर रहे हैं । नहीं, भक्तजनों जीत हमेशा प्रेम की ही होती है । और प्रेम में यदि कोई हार भी जाता है, तो वह भी उसकी जीत ही होती है । वह उसकी हार नहीं होती। आप जैसे मर्जी कहो, जीत तो भरत जी महाराज की ही हुई है ।

ठीक है महाराज, मैं राज्य अभिषेक के लिए सामग्री आपके लिए लेकर आया हुआ हूं । राज्याभिषेक के समय अयोध्या में परंपरा इस प्रकार की है, राजा को खड़ाऊं, पादुका पहनाई जाती है । तो भरत जी महाराज वह सारी सामग्री उनके लिए तैयार करी हुई थी, उसमें खड़ाऊं भी है । ठीक है महाराज आप इन खड़ाऊं पर अपने चरण धर दीजिएगा, मैं यह खड़ाऊं लेकर वापस जाऊंगा ।

भगवान ही तो है ना । मेरी माताओं सज्जनों मान जाओ इस बात को, वही है सब कुछ करवाने वाले । वह अति हर्षित हुए हैं भरत की बात को सुनकर । एक क्षण नहीं उन्होंने सोचने में लगाया । जैसे ही भरत जी महाराज ने नीचे पादुका रखी हैं तो उन्होंने अपने चरण पादुका पर रख दिए, डाल दिए। भरत जी महाराज ने भगवान के श्री चरणों से पादुका निकाल ली है, और अपने सिर पर, यह पादुका कोई सिर पर रखने वाली चीज तो नहीं है, लेकिन भरत जी महाराज ने अपने सिर पर उन्हें धारण कर लिया है ।

भगवान श्री पूछते हैं -
भरत यह चरण पादुका लेकर जा रहे हो,
यह क्या है ? महाराज संसार की दृष्टि में तो यह चरण पादुका है । मेरी दृष्टि में तो यह सीताराम है । मैं चरण पादुका नहीं ले जा रहा, मैं तो सीताराम को अपने सिर पर उठाकर ले जा रहा हूं । मेरे शिरोधार्य है ।
सदा मेरे सिर पर रहते हैं । मेरे स्वामी एवं स्वामिनी मैं उन दोनों को अपने साथ ले जा रहा हूं ।

*श्री भरत जी मुनिराज का चरण पादुका को अयोध्या का राजा घोषित करना* ।

किसी ने व्यंग्य कर दिया यदि आपको यह पता है कि यह सीताराम को ले जा रहे हैं, प्रभु को कहता है कोई व्यक्ति,
महाराज ऐसा क्यों नहीं कर लेते आप दोनों चले जाओ और पादुका यहां रह जाएं । दोनों ही सीताराम है । वह भी सीताराम, वह भी सीताराम ।

भगवान राम कहते हैं भाई आप ठीक कहते हो । लेकिन मैं क्या करूं । काश जैसी दृष्टि भरत की है, वैसे दृष्टि सबकी होती । यह दृष्टि भरत की ही है, जो जड़ में भी चेतन को देख सकता है । हमें तो चेतन में भी राम दिखाई नहीं देता, तो जड़ में कहां से दिखाई देगा ? जो आप कहते हो, मैं कर लेता,
यदि आपकी दृष्टि भी मेरे भरत जैसी होती।

भरत जी महाराज पादुका को लेकर अयोध्या लौट आते हैं । स्वयं जाकर नंदीग्राम में निवास करते हैं ।‌ पादुका ही सब कुछ करती है । कोई भेंट आती है तो पादुका पर चढ़ा दी जाती है । कोई आदेश जारी होता है तो पादुका द्वारा आदेश जारी किया जाता है। मानो भरत जी महाराज भगवान को यह कह कर चलते हैं, महाराज आपकी भूमि का भार, आपके राज्य का भार मैं चौदह वर्ष तक भोगूंगा । शब्दों पर ध्यान दो । भरत जी महाराज कितने स्पष्ट हैं ।
जैसे ही चौदह वर्ष पूरे हुए, यदि आप ना आए, तो आप जानते हो महाराज मैं क्या करूंगा ? माताओं सज्जनों एक थोड़ी सी बात और स्पष्ट करूंगा ।
भरत जी की भूमिका, जैसे लक्ष्मण जी महाराज की भूमिका रामायण में गुरु की है, आचार्य की है, वह राम जी को भी उपदेश देते हैं, भरत जी महाराज की भूमिका श्री रामायण जी में एक वैद्य की भूमिका है । एक डॉक्टर की भूमिका है ।
भगवान राम, मां कैकई की भूरी भूरी प्रशंसा करते हैं । क्यों ? वह उन्हें मां मानते हैं ।
भरत जी महाराज उतनी ही उनकी निंदा करते हैं, उतने ही कटु शब्द उनके प्रति बोलते हैं । क्यों ?

वह एक वैद्य होने के नाते एक रोगी को देख रहे हैं । मेरी मां इस वक्त रोगी है । क्या रोग लगा है इसे ? ममता का रोग लगा हुआ है। अध्यात्म ममता को खुजली से compare करता है । यह मानस रोग जो है, अध्यात्म उनको, उनकी तुलना जो है किसी की खुजली के साथ करता है, किसी की वात के साथ इत्यादि इत्यादि, किसी की कफ के साथ । इसकी तुलना खुजली की साथ की जाती है । आप जानते हो खुजली वहां होती है जहां जगह गर्म होती है, और गीली होती है । भरत जी महाराज इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं ।

skin specialist डॉक्टर लोग जो हैं, खुजली का उपचार जब बताते हैं तो वह कहते हैं, भाई जितना इस जगह को खुश्क रखोगे, शुष्क रखोगे, उतनी जल्दी आप को फायदा होगा । और खुजली की यह भी है, जितनी करो उतनी अधिक करने को मन करता है । खुजली करने से खुजली कम नहीं होती, और करने को मन करता है । ममता का भी बिल्कुल ऐसा ही स्वभाव है। वह भी बढ़ती जाती है,वह कभी कम नहीं होती, जितनी मर्जी उसको बढ़ा लो । भरत जी महाराज इस सत्य को जानते हैं ।
इसलिए कहते हैं मैं इस संबंध को गीला नहीं रखूंगा, इस संबंध को शुष्क करने की आवश्यकता है । तभी तो मेरी मां की खुजली जो है, वह ठीक होगी ।

कहते हैं जिंदगी भर भरत जी महाराज ने कैकई को फिर कभी मां नहीं कहा । मां कहूंगा, महाराज प्रभु राम की आज्ञा का भी उल्लंघन करते हैं, मेरे कहने से एक बार मां कहो । कहता है महाराज आप जो मर्जी कहो, मैं करने को तैयार हूं । लेकिन मैं कैकई को मां नहीं कहूंगा । इसी मां के कारण तो अनर्थ हुआ है । इसी मां पुत्र के संबंध, इसी ममता के कारण पहले अनर्थ हुआ है, अब एक बार फिर इन्हें मां कह दूंगा तो ना जाने क्या अनर्थ हो जाएगा । क्षमा करें प्रभु मैं यह आपकी बात नहीं मान सकता ।

रोगी को दवाई कड़वी दी जाती है, या मीठी। इसके पीछे भाव तो यही होता है ना रोगी का रोग जो है वह दूर हो जाए । आप सच मानो भरत जी महाराज के हृदय में मां कैकई के प्रति कोई द्वेष नहीं है । हमारी दोष दृष्टि, परदोष दृष्टि में और भरत की परदोष दृष्टि में यही अंतर है । हम जब भी किसी के दोष देखते हैं तो हम वैर बुद्धि से, द्वेष बुद्धि से देखते हैं । और भरत जी महाराज जो द्वेष, दोष देख रहे हैं, वह इस बुद्धि से नहीं देख रहे । वह किस बुद्धि से देख रहे हैं ?

दशरथ जब मर गए हैं दोनों माताएं, यूं कहिएगा तीनों माताएं तैयार हो गई है सती होने के लिए । अपने आपको दाह करने के लिए, सती होने, अपने आपको अग्नि में जलाने के लिए तैयार हो गई । सबसे अधिक प्रसन्नता तो भरत को होनी चाहिए थी, कि यह कैकई मर रही है । इसको मरना ही चाहिए । लेकिन नहीं । जहां मां कौशल्या को रोका है, उनके पांव पकड़े हैं, मां सुमित्रा को रोका है, उनके पांव पकड़े हैं, मां कैकई के भी पांव पकड़े हैं । नहीं । जो पाप तूने किया है, उसका प्रायश्चित अग्नि में जलने से नहीं । उसका प्रायश्चित पश्चाताप की अग्नि में जलने से होगा । मैं तुझे मरने नहीं दूंगा । कोटि कोटि प्रणाम भक्तजनों । नत शिर वंदना आप सबको ।

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