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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1072))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५९०(590)*
*राजा अश्वपति का प्रसंग*
*भाग १*
बहुत-बहुत धन्यवाद देवियो ।
परसो आपसे अर्ज की थी आज राजा अश्वपति की चर्चा करेंगे । राजा अश्वपति कैकय नरेश हुए हैं । अर्थात महारानी कैकई के पूर्वज । आज साधक जनों छांदोग्य उपनिषद की यह प्रसिद्ध कथा, इसका शुभारंभ यहां से होता है ।
महर्षि उद्दालक के पास पांच वेद्वांत तपस्वी मुनि गए हैं । वेदों पर चर्चा हुई है । महर्षि उद्दालक इन पांचों के शुभ आगमन पर अपार हर्षित हैं । ऋषि कुटिया में पांच मुनि पधारे हैं । सारा दिन, सारी रात, शास्त्रों पर चर्चा चलती रही । अंततः इन पांचों ने कहा - महर्षि हमारा ज्ञान मात्र पुस्तकों तक ही सीमित है । जो कुछ हमने अभी चर्चा की है, आत्मज्ञान की चर्चा की है, यह सिर्फ पढ़ी लिखी बातें हैं । हमें किसी प्रकार की अनुभूति नहीं है । मेहरबानी करके हमें अपनी चरण शरण में लीजिए, हमें आत्मबोध दीजिए । जो कुछ हमने पढ़ा है, जो कुछ हमने जाना है, वह सब अनुभव कर सकें । इसी को भक्तजनों आत्मसाक्षात्कार कहा जाता है,आत्म अनुभूति कहा जाता है।
याद तो बहुत कुछ है हमें, पढ़ा लिखा भी हमने बहुत कुछ है, सुना भी हमने बहुत कुछ है, और अभी बंद नहीं हुआ, चलता ही जा रहा है । लेकिन इनमें से कितना अनुभव में आया है, देखने की यह चीज है । यह मुनि ईमानदार है, अतएव confess करते हैं महर्षि उद्दालक के सामने, हमें अनुभूति नहीं है । हमें पता है आत्मा अजर है, अमर है, अविनाशी है, अजन्मा है, नश्वर शरीर की तरह नहीं है, अनश्वर है, शुद्ध है, प्रबुद्ध है, मुक्त है, चैतन्य है, इत्यादि इत्यादि । हमारे भीतर विराजमान है, परमात्मा ही आत्मा के रूप में हमारे अंदर, हम उस परमात्मा के अंश हैं, हमारी चेतना परमात्मा से भिन्न नहीं है । जैसा परमात्मा है, जो गुण हमारे अंदर हैं, हमारी आत्मा के गुण हैं, वही परमात्मा के गुण है, दोनों में कोई अंतर नहीं है । लेकिन महर्षि उद्दालक ऐसा हमें अनुभव नहीं है । यह मात्र पुस्तकों से पढ़ी-लिखी चीजें ही हैं । मेहरबानी करके हमें उपदेश दीजिए, ताकि हमें अनुभूति हो सके,
हमारे मन में जो शंकाएं हैं, उनका निराकरण कीजिए, वह शंकाएं दूर कीजिए ।
महर्षि उद्दालक ने कहा -मुनियों आप मेरे पास पधारे हो, मैं आपका हार्दिक अभिनंदन करता हूं । आपने बहुत मेरे ऊपर मेहरबानी की है । पर कोई सामान्य व्यक्ति होता तो मैं उनके सामने बात छुपा सकता था, कुछ और कर सकता था, लेकिन संतों महात्माओं के सामने झूठ नहीं बोलना चाहिए, कुछ छुपाना नहीं चाहिए । मैं आपसे सत्य कहता हूं, मैं भी अभी सिद्ध नहीं हूं । बहुत बड़ी बातें हैं। एक तरफ तपस्वी पांच, दूसरी तरफ जिनके पास वह तपस्वी आए हैं, उनका confession देखिए ।
मैं अभी इस पथ का पथिक हूं । मैं सिद्ध नहीं हूं । मैं भी किसी ब्रह्मज्ञानी की खोज में हूं । मैं भी जरूरत महसूस करता हूं किसी ब्रह्मज्ञानी के पास जाने की ।
भक्तजनों दीपक जलेगा, तो जलते हुए दीपक से जलेगा । इसलिए ऐसे व्यक्तियों को जलते हुए दीपक कहा जाता है, जिनको ब्रह्म साक्षात्कार हो चुका हुआ है, आत्मसाक्षात्कार हो चुका हुआ है, जिन्हें अनुभूत कहा जाता है, जिन्हें अनुभूति हो चुकी हुई है, जो इस चीज को देख चुके हुए हैं, जो इस चीज का अनुभव कर चुके हुए हैं। उन्हें ऐसा कहा जाता है जलते दीपक । अपना दीपक इसी दीपक से जलाओगे तो जलेगा ।
चलो, सब के सब राजा अश्वपति के पास चलते हैं । वह अनुभूत हैं, वह सिद्ध हैं ।
भले ही राजा है, भले ही क्षत्रिय हैं, और हम ब्राह्मण, ऋषि, संत महात्मा देखने में, लेकिन वह तो वास्तविक संत महात्मा है । उनकी चरण शरण में चलते हैं । अगले दिन यह सब छह के छह, राजा अश्वपति के पास गए हैं । राजा अश्वपति इनको देखकर तो निहाल हो गए हैं । अपने हाथों से इन सब को भोजन परोसा है, बैठकर खिलाया है, सेवा की है, बहुत सेवा की है । प्रेम पूर्वक, श्रद्धा पूर्वक। दिखावे वाली सेवा नहीं, मानो ऐसा महसूस हो रहा है उन्हें, कि उनके घर में नारायण की छह मूर्तियां, छह स्वरूप आ गए हैं । साक्षात् नारायण उनके घर आ गए हैं, और उसी प्रकार से उन छह को अपने हाथों से परोस कर तो भोजन दिया है । बहुत से उपहार उनके आगे रख दिए है । लीजिए महाराज स्वीकार कीजिएगा, मुझ गरीब को कृतार्थ कीजिएगा ।
मुनि एक दूसरे के मुख् की और देख रहे हैं । लगा इनके मन में कहीं ऐसी बात है, मन ही मन सोचा मुनियों ने, इनके पास जो भी आता होगा इसी काम के लिए आता होगा। तो राजा ने ठीक ही सोचा कि यह भी इसी काम के लिए आए होंगे । इसलिए भोजन भी करवा दिया, पेट भर भोजन करवाया है, स्वादु भोजन करवाया है, स्वयं परोसा है इत्यादि इत्यादि । और अनेक सारे उपहार हमारे आगे रख दिए हैं । इनके पास जो भी कोई आता होगा, इसी काम के लिए आता होगा और राजा की सोच बिल्कुल सही कि यह भी इसी काम के लिए आए होंगे । एक दूसरे की और देख रहे हैं, हम इस काम के लिए नहीं आए ।
राजा ने मन ही मन सोचा, संत महात्मा है, कोई साधारण ब्राह्मण इत्यादि होते तो, यह ब्राह्मण भी हैं, ब्रह्म ऋषि जैसे कहिएगा, ब्राह्मण भी हैं, ऋषि भी हैं, मन में यह बात होगी कि हम पवित्र धन स्वीकार करते हैं । उस दिन आपने पढ़ा था अश्वपति अपने लिए किस प्रकार का कहते हैं, तो इस बात को स्पष्ट करने के लिए महात्माओं को राजा अश्वपति कहते हैं -
मुनियों मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है । चोर इसलिए नहीं है कि किसी को किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं है । कोई भीख मांगने वाला नहीं है, मानो कोई अभाव होगा तो, जरूरतमंद होगा । किसी को किसी प्रकार का अभाव नहीं है । जितने भी धनवान है मेरे राज्य में सब दान देने वाले हैं, दानी है । कोई व्यभिचारी नहीं है, इत्यादि इत्यादि ।
अतएव मेरे कोष में जितना भी धन है, आप सच मानिएगा पवित्र है । आप इस धन को स्वीकार कीजिएगा, इन उपहारों को स्वीकार कीजिएगा ।
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