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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1048))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५६५(565)*
*राजा जनक*
*भाग-५*
पूज्य पाद स्वामी जी महाराज राजा जनक की चर्चा ही कर रहे हैं अभी भी । कुछ दिन तक और जारी रखेंगे । ऐसा लगता है स्वामी जी महाराज राजा जनक को बहुत उच्च कोटि का राज ऋषि मानते हैं । स्वामी जी महाराज का favourite कहिए, संभवतया उनका ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग, इन सब से स्वामी जी महाराज बहुत प्रभावित हैं। इसीलिए इतने दिनों से उन्हीं के पृष्ठ पर चर्चा चल रही है । जनक सभा में संत महात्मा सदा विराजमान रहते हैं । राम दरबार में भी ऐसा ही था । शायद उस वक्त प्रथा इस प्रकार की ही हुआ करती होगी। कहते हैं राजा लोग स्वयं न्याय नहीं करते थे, निर्णय नहीं लेते थे, संत महात्माओं से या ऋषि, गुरु, वहां विराजमान होते थे, कोई किसी प्रकार का कोई केस आता था तो उनसे पूछते थे दंड क्या दिया जाए ? राजा सिर्फ सुनाते थे । निर्णय संतो महात्माओं का हुआ करता था ।
जनक सभा में बहुत संत महात्मा बैठे हुए, ऋषि मुनि बैठे हुए है । अष्टावक्र जी महाराज पधारे हैं । आठ अंगों से विकृत, अष्टावक्र नाम ही उनका, आठ अंग सब टेढ़े मेढ़े । रंग भी काला कलूटा । पांव घसीटते घसीटते हुए राज्यसभा में पधारे हैं । आज का प्रसंग पढ़कर यही लगता है, कि अष्टावक्र जी महाराज ने जो उनको कहा सो कहा, वास्तव में हम सभी चमार हैं । चर्मकार जो देह भाव से ऊपर नहीं उठा, वह चमार । जिसको चमड़ी ही दिखाई देती है वह चमार, वह चर्मकार । उन संतो महात्माओं को नहीं, अष्टावक्र ने आज हम सब को चर्मकार कहा है । हमारी दृष्टि देह तक ही सीमित है । इसी को देह भाव कहा जाता है । घातक है साधक जनों । निरर्थक है, किसी काम की नहीं । सत्य नहीं । यह व्यवहार में तो काम आती है, लेकिन परमार्थ में काम नहीं आती। परमार्थ में बहुत बड़ी बाधा है यह देह बुद्धि। यह देह भाव हर एक का नष्ट होना चाहिए। यदि वह साधना में प्रगति चाहता है,
अध्यात्म में उन्नति चाहता है, तो उसका यह देह भाव यह खत्म होना चाहिए । उसका आत्मा निर्मल, स्वस्थ, विमल आत्मा ।
यह भ्रांति उसके अंदर से निकलनी चाहिए कि वह देह है । वह देह नहीं, वह आत्मा ही है । जो हम हैं । आत्मा के साथ ही हम भी जैसे आत्मा सोचने लगता है, वैसे ही हम भी सोचने लगते हैं । वैसे ही हम हो जाते हैं, वैसा ही हमारा व्यवहार हो जाता है ।
कुछ दिन पहले आपने शुकदेव का प्रसंग पढ़ा था । छोटी मोटी हस्ती नहीं । महर्षि व्यास देव के सुपुत्र शुकदेव जी महाराज गर्भ से ही ज्ञानी थे । गर्भ में ही उन्हें ज्ञान था । बाहर निकलने के बाद उन्हें ज्ञान की कितनी प्राप्ति हुई, मानो कोई गुंजाइश नहीं थी ।
Full थे पूर्ण थे बिल्कुल । शुकदेव जी महाराज जिन्होंने भागवत की कथा राजा परीक्षित को सुनाई थी, क्षत्रिय ब्राह्मण है । राजा जनक क्षत्रिय, ज्ञान का देवियों सज्जनों कुछ भी हो, कोई भी हो, ज्ञान होना बुरी बात नहीं । ज्ञानी होना बहुत बुरी बात है, अभिमान का चिन्ह है । ज्ञान बुरी बात नहीं है, बहुत अच्छी बात है । ज्ञान तो हर एक के पास होना चाहिए, लेकिन ज्ञानी कहलाना अभिमान का चिन्ह है ।
शुकदेव जी महाराज की कथा इस प्रकार की है भी । अपने आप को ज्ञानी ही मानते थे। मुझे किसी गुरु की आवश्यकता नहीं । जगद्गुरु जैसे परमात्मा को कहा जाता है, ऐसे महर्षि व्यास देव को भी कहा जाता है । उन्हें भी पता था मेरा पुत्र किस प्रकार का है, कितना पढ़ा है, क्या उसकी सोच है । अतएव स्वयं उसे अपना शिष्य ना बना कर, बना सकते थे, हमेशा राजा जनक के पास भेजते थे, कि जा उनसे ज्ञान प्राप्त कर। उनको अपना गुरु धारण कर । उससे पहले भी यह कहते हैं कि शुकदेव जी महाराज घूमते घूमते बैकुंठ चले गए । वहां धक्के पड़े तेरा कोई गुरु नहीं है । तुझे बैकुंठ में प्रवेश करने की अनुमति नहीं । निगुरा तू निगुरा है। शुकदेव को कहा तो निगुरा है । जाकर कोई गुरु धारण कर फिर आना ।
राजा जनक के पास जब भी पिता श्री भेजते, हमेशा मन में विचार आता;
मैं ब्राह्मण, वह क्षत्रिय,
मैं सन्यासी, वह गृहस्थी,
मैं योगी, वह भोगी ।
मेरे पिता श्री को क्या हो गया । मुझे क्यों बार-बार उनके पास भेज रहे हैं । वह मेरे गुरु होने योग्य नहीं है । इस सोच में देवियों सज्जनों, जितनी शक्ति शुकदेव जी महाराज लेकर आए हुए थे, सारी की सारी नष्ट हो गई। कहते हैं किसी सत्पुरुष का, किसी सद्गुरु के बारे में, इस प्रकार की सोच का होना, उसकी जितनी भी शक्ति है, जितनी कला संपूर्ण आए हुए थे, शुकदेव जी महाराज सारी की सारी, दो चार ही बाकी रह गई ।
राजा जनक ने इनके साथ क्या किया, सबने पढ़ा है । आखिर पहुंच गए धक्का खा कर। चोट लगी । देवर्षि नारद ने कोई और रूप धारण करके तो इन्हें चोट मारी । क्या कर रहा है । तेरे पास कुछ नहीं रहा । इतना महान तू जन्मा था, अब उतना ही छोटा हो गया है । वामन हो गया है तू, बोना हो गया है तू । जा राजा जनक की चरण शरण में जा ।
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