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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।
((1040))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५५७(557)*
*जैसी करनी वैसा फल(उपदेश मंजरी)*
*भाग-२*
आइए साधक जनों कुछ एक दृष्टांतो के माध्यम से देखें,
“जैसी करनी वैसा फल,
आज नहीं तो निश्चिय कल”
कोई दो राय नहीं इसमें ।
फल तरह तरह का है । एक तो इस प्रकार का आज रात आपने कोई गंदी चीज खा ली, हो सकता है मध्यरात्रि ही आपको उठना पड़े उल्टी के लिए, vomiting के लिए, दस्त लग जाए । यह उस कर्म का तत्काल फल
है । यह तो थोड़ी देरी लग गई । ऐसा भी होता है कभी ऐसी चीज भी खाई जाती है की तत्काल Vomiting हो जाती है, कर्म का तत्काल फल । आज आप ने परीक्षा दी तीन महीने के बाद उसका परिणाम निकलेगा । वह कर्म फल तीन महीने के बाद मिलने वाला है । फल की अवधि देवियों सज्जनों परमेश्वर के अधीन ही है । कब, कहां, क्या, कितना फल देना है, सब उसके अधीन है ।
एक पौधा तीन एक महीने के बाद ही कुछ खाने को देता है ।
दूसरा एक साल के बाद देता है,
तीसरा पांच साल के बाद देता है,
सेब का पौधा है दस साल के बाद फल खाने को देता है ।
यह तो यहां की चीजें हो गई ।
कुछ ऐसी चीजें भी तो होगी जिसका फल इस जन्म में संभव नहीं । तो फिर अगला जन्म लेना पड़ेगा । और यह सत्य है, यह स्पष्ट दिखाई देता है हमें । तो यही मानना पड़ेगा कर्म सिद्धांत के अंतर्गत
“जैसी करनी वैसा फल
आज नहीं तो निश्चय कल”
कल अगला जन्म भी हो सकता है, उससे अगला जन्म भी हो सकता है ।
परमेश्वर सजा नहीं देता देवियों सज्जनों । उसके विधान में अत्याचार, अन्याय नहीं है। वह मात्र हमारे लिए व्यवस्था करता है, जो किया है उसके फल का भुगतान इसका हो जाए, ताकि इसका कर्म कटे । यह कर्म बोझ उठाकर रखेगा, तो इसका जन्म मरण का चक्र छूटेगा नहीं ।
यह सत्य है देवियों सज्जनों हम सब अपने अपने कर्म भोग भोगने के लिए, फल भोगने के लिए यहां आए हुए हैं । या यूं कहिएगा हम सब अपने कर्मों का ऋण उतारने के लिए यहां आए हुए हैं । जो हमारे सिर पर था, उसे उतारने के लिए यहां आए हैं ।
उतर गया तो यही हिसाब किताब खत्म ।
और ले लिया तो फिर अगले जन्म की तैयारी होगी । अतएव संत महात्मा समझाते हैं -
भाई जो लिया हुआ है उसे ही उतारो, समझदार बनो और ना लो । ताकि यह जन्म मरण का चक्कर, इतनी पीड़ा देने वाला चक्कर है, यह यहीं खत्म हो जाए ।
आज एक आचार्य अपने शिष्यों से कहते हैं, अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए मेरा कोई हिसाब किताब रहता है । अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए मुझे बकरे की बलि देनी है । जाओ एक बकरा ले आओ ।
शिष्य गए हैं । जाकर एक बकरा ले आए हैं। किसी छोटे-मोटे व्यक्ति की बात नहीं । आचार्य गुरु समझिएगा, सर्वोच्च पद पर आरुड़ व्यक्ति उसकी कथा है यह । शिष्य बकरा ले आया है । कहा इसे नहलाओं धुलाओ, साफ सुथरा करो, तिलक इत्यादि लगाओ । गले में फूल माला और तैयार कर के मेरे पास ले आओ इसे, मैं फिर संकल्प करूंगा । इस की बलि दी जाएगी । शिष्य बकरे को तैयार कर रहे हैं ।
एक मिनट के लिए बकरा हंसा है । हंसने के बाद रोया है । शिष्यों ने कारण पूछा ।
कहा अपने गुरु के पास ले चलो । वहीं कारण बताऊंगा । तैयार कर के बकरे को हार इत्यादि डला हुआ है, तिलक भी लगा हुआ है, मानो बलि देने के लिए तैयार है । गुरु महाराज से कहा, यह अभी हंसा था, फिर रोया है । और कहता था कि मैं कारण गुरु महाराज के सामने ही बताऊंगा ।
बताओ बकरे क्यों आप हंसे थे और क्यों रोए थे ?
कहा महाराज मैं भी पिछले जन्म में आप ही की तरह आचार्य ही था । मुझे भी इसी प्रकार बकरे की बलि देनी थी । बकरा इसी प्रकार तैयार किया हुआ था, बलि दे दी । पांच सौ बार मुझे अपनी गर्दन कटवानी है, उस कर्म के फल के अंतर्गत । एक बार मैंने उस बकरे की बलि दी थी, पांच सौ बार बकरा बन के मुझे अपनी बलि देनी थी । 499 बार हो चुकी है । यह पांच सौ बारी है, इसलिए प्रसन्न हूं ।
मेरे बकरे की योनि खत्म होने वाली है ।
रोया इसलिए आपका हाल भी यही
होने वाला है ।
गुरु महाराज ने यह बात सुनी । सुनकर मन ही मन चिंतन मनन किया । कहा -
बकरे हम तेरी बलि नहीं देंगे । तुम्हें मारेंगे नहीं । गुरु महाराज कोई बात नहीं । मुझे तो मरना है । आप नहीं मारोगे कोई और मार देगा । पर मुझे आज मरना है, निश्चित है । यह आज मेरी अंतिम बारी है, अंतिम दिन है, मेरे बकरे की योनि का । उसके बाद मेरी योनि बदल जाएगी । उस एक कर्म का फल मुझे पांच सौ बार भुगतना पड़ा । तब उसका फल पूरा होगा ।
गुरु महाराज अपने शिष्यों को कहते हैं-
इसके पीछे पीछे जाओ ।छोड़ दो इसे ।
पीछे पीछे जाओ । रक्षा करना इसकी । ध्यान रखना कोई इसे मारे ना । शिष्य चले गए पीछे पीछे । बकरे को भूख लगी हुई थी। एक पहाड़ी पर चढ़ा है वहां पर तरह-तरह के छोटे छोटे पौधे, झाड़ियां लगी हुई थी । बकरा अपने स्वभाव के अनुसार झाड़ियों से पत्ते खाने लग गया । तोड़ रहा है मुख से, खाता जाता है ।
इसी बीच जिस पहाड़ी पर वह खड़ा होकर तो पत्ते खा रहा है, उसी पहाड़ी के ऊपर से एक पत्थर लुढ़का, उसकी गर्दन पर पड़ा और गर्दन कट गई । बिल्कुल वैसे ही कटी जैसे छुरी से काटी जाती है ।
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