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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1010))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५२७(527)*
*आत्मिक भावनाएं*
*सुख*
*भाग-६*
आत्मिक भावना के अंतर्गत सुख की चर्चा चल रही है। स्वामी जी महाराज आत्मा के प्रति जो विदित भावनाएं हमारी होनी चाहिए, उनका वर्णन कर रहे हैं । चर्चा चल रही थी, चींटी से लेकर ब्रह्माजी तक सब की एक मौलिक मांग है, सुख ।
जो कुछ हम करते हैं, आप गंभीरता से विचार करें वह सिर्फ इसी की प्राप्ति के लिए।
संतान पैदा करते हैं, सुख के लिए;
उन्हें पढ़ाते हैं, सुख के लिए; उन्हें नौकरी दिलाते हैं, सुख के लिए;
जो कुछ भी करते हैं आप, साधक जनों मांग सबकी एक है, वह सुख हमें चाहिए ।
पुत्र का विवाह करते हैं, सुख मिलेगा । पुत्री का विवाह करते हैं, सुख मिलेगा, इत्यादि इत्यादि ।
धन कमाते हैं, सुख के लिए; मकान छोटा है बड़ा बनवाते हैं, सुख के लिए;
कार एक है, अनेक चाहिए सुख के लिए;
तो मौलिक मांग हमारी सुख ही है ।
यह सुख कैसा सुख है ? साधक जनों थोड़ा यह जानने की आवश्यकता है । उस दिन आप जी ने देखा जिस सुख में हम अटके हुए हैं, वह उस वास्तविक सुख का मात्र प्रतिबिंब है, वह वास्तविक सुख नहीं है । मौलिक मांग वास्तविक सुख है, तो यह वास्तविक सुख क्या है ?
कैसा सुख है यह ? ऐसा सुख जो सर्वदेश, सर्वकाल हो ।
यहां आप बहुत सुखी बैठे हैं। आप नहीं चाहते कि घर दुख मिले जाकर । मानो यहां भी आप सुख चाहते है और वहां भी आप सुख चाहते है । उसके बाद आप ऑफिस जाते है या दुकान पर जाते है, वहां पर भी आप सुख चाहते हैं । ऐसे सुख को सर्वदेश सुख कहा जाता है । हर जगह आपको सुख चाहिए। ऐसा भी नहीं है यह सुख सुबह-सुबह हमें मिल जाए और दोपहर से दुख शुरू हो जाए । आप सुबह भी सुख चाहते हैं, दोपहर को भी सुख चाहते हैं, शाम को भी सुख चाहते हैं, रात्रि को भी सुख चाहते हैं । ऐसे सुख को सर्व काल सुख कहा जाता है । सर्वकाल सुख, सर्वदेश सुख। ऐसा भी नहीं यहां बहुत सुखी बैठे हैं । घर जाकर आपको मां बाप तो बहुत सुख देते हैं। उनसे बातचीत करते हैं, आपको सुख मिलता है । लेकिन पत्नी दुख देती है । आप ऐसा सुख भी नहीं चाहते ।
मानो आप सर्वदेश सुख चाहते हो,
सर्वकाल सुख चाहते हो
और सब से सुख चाहते हो । ऐसा भी सुख नहीं चाहते आप जो किसी के पराधीन हो । किसी पर निर्भर रहना पड़े या ऐसा सुख जिसे परवशता का सुख कहा जाता है ।
वास्तव में साधक जनों हम सब के सब इस परवशता के सुख के रोगी हैं । कोई शराब के सुख पर निर्भर करता है, कोई बीड़ी सिगरेट के सुख पर निर्भर करता है,
कोई पति के सुखपर निर्भर करता है,
कोई धन के सुख पर निर्भर करता है,
कोई प्रशंसा सुनने के सुख पर निर्भर करता है ।
तो हम सब परवशता के सुख के use to हैं । स्वाधीन सुख चाहिए ।
ऐसा सुख नहीं जो किसी के ऊपर निर्भर रह कर हमें मिले। ऐसा भी सुख हम नहीं चाहते देवियों सज्जनों जिस की मात्रा बहुत थोड़ी हो, ना। हम प्रचुर मात्रा में सुख चाहते हैं । तो कई सारी चीजें इस सुख के साथ जुड़ी हुई है ।
यह चाहिए, वह चाहिए,
यहां चाहिए, वहां चाहिए, इससे चाहिए, उससे चाहिए, इसमें स्वाधीनता होनी चाहिए,
दूसरे के ऊपर निर्भरता नहीं होने चाहिए,
थोड़ा नहीं होना चाहिए, बहुत मात्रा में, बहुत Quntity में सुख होना चाहिए, इत्यादि इत्यादि ।
ऐसे सुख का नाम है परमसुख,
ऐसे सुख का नाम है परमात्मा,
ऐसे सुख का नाम है परमेश्वर, ईश्वर,
ऐसे सुख का नाम है परमानंद,
ऐसे सुख का नाम है परम शांति ।
यह किसके पास हैं परमात्मा के पास । यह सुख आपको चाहिए तो आपको परमात्मा की चरण शरण में ही बेटा जाना पड़ेगा, जिसके पास यह सब कुछ है । जो इन सब चीजों का स्रोत है, उसी को Approach करना होगा । उसी से आपको अपने आप को Link करना होगा, तो ही आपको सुख मिलेगा । आप संसार से युक्त हैं, हम तो, संसार के पास देवियों सज्जनों सुख है ही नहीं तो देगा कहां से आपको । एक यदि यह बात हमारी समझ में आ जाती है, तो फिर हम सुख के लिए पति पर निर्भर नहीं रहते । अभी तो हम पति पर निर्भर हैं, धन पर निर्भर हैं, इस पर निर्भर हैं, उस पर निर्भर हैं, इत्यादि इत्यादि । अंततः देवियों सज्जनों आपको यह सुख बेशक मिलता तो है, क्षणिक सुख मिलता है । लेकिन इतना दुख देकर जाता है, जिंदगी भर आप उस दुख को भूल नहीं सकते । वह जिंदगी भर का साथी होता है । मानो यह सुख तो कम साथ देता है, लेकिन दुख सदा का देकर वह चला जाता है । यदि आप ऐसा महसूस करते हैं कि नहीं, हमें सुख मिल रहा है; आप अंदर झांक कर देखिए वास्तव में आप सुखी हैं, तो आप सिर हिलाओगे कि नहीं, हम वास्तव में सुखी नहीं ।
बस रह रहे हैं, जी रहे हैं । लेकिन हम सुखी नहीं है । जिस सुख की साधक जनों खोज है, वह संसार के पास है ही नहीं ।
सब्जी की दुकान से आपको गहने नहीं मिलेंगे,
बर्तन की दुकान पर आपको औषध नहीं मिलेगी । जहां यह चीजें मिलती हैं, साधक जनों वही आपको Approach करना पड़ेगा । वहीं यह सब चीज मिलेगी । भ्रांति है साधक जनों, इस भ्रांति को दूर करना चाहिए ।
एक गंदी सी उदाहरण है, लेकिन है तो बहुत मार्मिक । संत महात्मा प्राय: इस दृष्टांत को सबको सुनाते हैं, क्योंकि हम सब इसी रोग से ग्रस्त हैं, यही फंसे हुए हैं । इसलिए वहां से निकालने के लिए तो यह एक दृष्टांत सुनाया जाता है ।
एक कुत्ता है । कुत्ता हड्डी खाता है । कहीं से उसे हड्डी मिल जाती है । वह उस हड्डी को काटने लग जाता है । उसे जैसे जैसे वह काटता जाता है, तैसे तैसे उसे रस आता है। तैसे तैसे उसे स्वाद आता है । उसे भ्रांति ही है, कि मुझे सुख हड्डी से मिल रहा है । लेकिन नहीं । संत महात्मा कहते हैं नहीं । हड्डी के काटने से उसके अपने मुख से खून निकलता है । उसका खून जो है, वह स्वादु है, वह स्वाद खून देता है । वह स्वाद हड्डी का नहीं है । जैसे जैसे उसे स्वाद और लगता है, तो वह और काटता है, तो उसका सारे का सारा जबाड़ा जो है वह लहूलुहान हो जाता है । लेकिन वह स्वाद ले रहा है । यह स्वाद हड्डी का नहीं है। देवियों सज्जनों यह स्वाद उसके अपने खून का है ।
ठीक इसी प्रकार से संत महात्मा साधक जनों हमें समझाते हैं,
जिसे आप विषय सुख समझते हो, जिसे आप यह मानते हो, कि हमें विषयों से सुख मिल रहा है, नहीं;
यह विषय सुख नहीं है ।
यह आपकी अपनी आत्मा, आपके परमात्मा जो भीतर विराजमान है, उसका प्रतिबिंब है । आज आपने पढ़ा । आज आपने शांत भावना पढ़ी है, दूसरी भावनाएं पढ़ी है, प्रिय भावना पढ़ी है । उसके अंतर्गत स्वामी जी महाराज ने लिखा है,
जो कुछ भी आपको प्राप्त होता है,
जो कुछ भी आपको प्रिय लगता है, प्यारा लगता है, मानो उसमें ऐसा कुछ नहीं है। यह आपका अपना आत्मा उसमें प्रतिबिंब होता है ।
आप का परमात्मा अपने भीतर बैठा हुआ, उसमें प्रतिबिंबित है । तो वह आपको प्रिय लगने लग जाता है । यदि ऐसा नहीं है तो कभी अप्रिय लगने लग जाता है । प्रेम उसी पर उमड़ता है जो अपने अंदर से निकलता है।
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