shiv mahapuran episode 49 विवाह के लिए भगवान् शिव ने क्या शर्तें रखीं ? shiv katha @sartatva

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shiv mahapuran episode 49 विवाह के लिए भगवान् शिव ने क्या शर्तें रखीं ? shiv katha shivpuran @sartatva

शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय १६

ब्रह्माजी का रुद्रदेव से सती के साथ विवाह करने का अनुरोध, श्रीविष्णु द्वारा अनुमोदन और श्रीरुद्र की इसके लिये स्वीकृति

ब्रह्माजी कहते हैं – श्रीविष्णु आदि देवताओं द्वारा की हुई उस स्तुति को सुनकर सबकी उत्पत्ति के हेतुभूत भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोर हँसने लगे। मुझ ब्रह्मा और विष्णु को अपनी-अपनी पत्नी के साथ आया हुआ देख महादेवजी ने हम लोगों से यथोचित वार्तालाप किया और हमारे आगमन का कारण पूछा।

रुद्र बोले – हे हरे! हे विधे! तथा हे देवताओ और महर्षियो! आज निर्भय होकर यहाँ अपने आने का ठीक-ठीक कारण बताओ। तुम लोग किस लिये यहाँ आये हो और कौन-सा कार्य आ पड़ा है? वह सब मैं सुनना चाहता हूँ; क्योंकि तुम्हारे द्वारा की गयी स्तुति से मेरा मन बहुत प्रसन्न है।

मुने! महादेवजी के इस प्रकार पुछ्ने पर भगवान् विष्णु की आज्ञा से मैंने वार्तालाप आरम्भ किया।

मुझ ब्रह्माने कहा – देवदेव! महादेव! करुणासागर! प्रभो! हम दोनों इन देवताओं और ऋषियों के साथ जिस उद्देश्य से यहाँ आये हैं, उसे सुनिये। वर्षभध्वज! विशेषतः आपके ही लिए हमारा वहाँ आगमन हुआ है; क्योंकि हम तीनों सहार्थी हैं – सृष्टिचक्र के संचालन रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये एक-दुसरे के सहायक हैं। सहार्थी को सदा परस्पर यथायोग्य सहयोग करना चाहिये अन्यथा यह जगत् टिक नहीं सकता। महेश्वर! कुछ ऐसे असुर उत्पन्न होंगे, जो मेरे हाथ से मारे जायँगे। कुछ भगवान् विष्णु के और कुछ आपके हाथों नष्ट होंगे। महाप्रभो! कुछ असुर ऐसे होंगे, जो आपके वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र के हाथ से ही मारे जा सकेंगे। प्रभो! कभी कोई विरले ही असुर ऐसे होंगे, जो माया के हाथों द्वारा वध को प्राप्त होंगे। आप भगवान् शंकर की कृपा से ही देवताओं को सदा उत्तम सुख प्राप्त होगा। घोर असुरों का विनाश करके आप जगत् को सदा स्वास्थ्य एवं अभय प्रदान करेंगे अथवा यह भी सम्भव है कि आपके हाथ से कोई भी असुर न मारे जायँ; क्योंकि आप सदा योगयुक्त रहते हुए राग-द्वेष से रहित हैं तथा एकमात्र दया करने में ही लगे रहते हैं। ईश! यदि वे असुर भी आराधित हों – आपकी दया से अनुगृहित होते रहें तो सृष्टि और पालन का कार्य कैसे चल सकता हैं। अतः वृषभध्वज! आपको प्रतिदिन सृष्टि आदि के उपयुक्त कार्य करने के लिए उद्यत रहना चाहिये। यदि सृष्टि, पालन और संहाररूप कर्म न करने हों तब तो हमने माया से जो भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हैं, उनकी कोई उपयोगिता अथवा औचित्य ही नहीं हैं। वास्तव में हम तीनों एक ही हैं, कार्य के भेद से भिन्न-भिन्न देह धारण करके स्थित हैं। यदि कार्यभेद न सिद्ध हो, तब तो हमारे रूपभेद का कोई प्रयोजन ही नहीं है। देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। इस रूप भेद में उनकी अपनी माया ही कारण है। वास्तव में प्रभु स्वतन्त्र हैं। वे लीला के उद्देश्य से ही ये सृष्टि आदि कार्य करते हैं। भगवान् श्रीहरि उनके बायें अंग से प्रकट हुए हैं, मैं ब्रह्मा उनके दाये अंग से प्रकट हुआ हूँ और आप रुद्रदेव उन सदाशिव के हृदय से आविर्भूत हुए हैं; अतः आप ही शिव के पूर्ण रूप हैं। प्रभो! इस प्रकार अभिन्न रूप होते हुए भी हम तीन रूपों में प्रकट हैं। सनातनदेव! हम तीनों उन्हीं भगवान् सदाशिव और शिवा के पुत्र हैं, इस यथार्थ तत्त्व का आप हृदय से अनुभव कीजिये। प्रभो! मैं और श्रीविष्णु आपके आदेश से प्रसन्नतापूर्वक लोक की सृष्टि और पालन के कार्य कर रहे हैं तथा कार्य-कारणवश सपत्निक भी हो गये हैं; अतः आप भी विश्वहित के लिये तथा देवताओं को सुख पहुँचाने के लिये एक परम सुन्दरी रमणी को अपनी पत्नी बनाने के लिये ग्रहण करें। महेश्वर! एक बात और है, उसे सुनिये; मुझे पहले के वृतान्त का स्मरण हो आया है। पूर्वकाल में आपने ही शिवरूप से जो बात हमारे सामने कही थी, वही इस समय सुना रहा हूँ। आपने कहा था, 'ब्रह्मन्! मेरा ऐसा ही उत्तम रूप तुम्हारे अंगविशेष – ललाट से प्रकट होगा, जिसकी लोक में 'रुद्र' नाम से प्रसिद्धि होगी। तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हो गये, श्रीहरि जगत् का पालन करने वाले हुए और मैं सगुण रुद्ररूप होकर संहार करने वाला होऊँगा। एक स्त्री के साथ विवाह करके लोक के उत्तम कार्य की सिद्धि करूँगा।' अपनी कही हुई इस बात को याद करके आप अपनी ही पूर्व प्रतिज्ञा को पूर्ण कीजिये।

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